१५. श्री माताजी के मार्गदर्शन में कार्य का

आरम्भ

 

चुनीलाल को पांडिचेरी आए हुए दस दिन ही हुए थे कि एक दिन श्री माताजी ने उनको बुलाया और कहा, ''चुनीभाई, तुम सत्येन को भात परोसने में मदद करोगे

हाँ माताजी! '' उन्होंने कहा। उसी दिन से ''भोजन कक्ष'' में उनके भात परोसने के कार्य का प्रारम्भ हुआ, वह बढ़ता-बढ़ता पूरे भोजन कक्ष के उतरदायित्व के रूप में सिर पर आ गया। यह कार्य उनके अन्तिम सांस तक अविरत चलता रहा।

प्रारम्भ में तो श्रीमाताजी अपने हाथों से साधकों को भोजन की थालियाँ देती थीं। श्रीमाताजी अपने कार्यक्रम समाप्त करके डाईनींग रूम (भोजन कक्ष) में आती थीं। वे सभी को परोसती थीं, तब साधकों की संख्या लगभग २५ थी। नलिनीकान्त और विजय सभी डीशें तैयार रखते और श्री माताजी के हाथ में देते, फिर माताजी सबको देती थीं। यही कमरा बाद में साफ करके दर्शन के दिनों में माताजी मुलाकातियों से मिलने के लिए उपयोग करती थीं। १९२७ के बाद भोजन कक्ष बदल गया। उस समय भोजन कक्ष को जहाँ नवीनचंद्र की वर्कशाप है, वहाँ बदला गया। जब भोजन कक्ष बदलना था तब इंजीनियर चन्दूलाल ने छत ठीक करने के लिये आदमियों को पाँच बजे भेजा और चुनीभाई ने तत्क्षण निर्णय लिया कि उस दिन शाम का भोजन उसी रूम में देना है और उन्होंने उसी शाम भोजन

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कक्ष बदल दिया। वे लिखते हैं, ''यद्यपि रसोई घर सत्येन के अधिकार में था, तब भी मैं उनकी अनुमति के लिये रुका नहीं। संयोगों का दबाव ऐसा था कि तत्काल निर्णय लेना था। मैंने सम्पूर्ण श्रद्धा से काम कर डाला। तब से मेरा सिद्धान्त रहा कि परिस्थिति की माँग का अनुसरण करना, पद्धति का नहीं।'' इसी प्रकार उनके सभी काम होते रहे।

उस समय पांडिचेरी में किसी संस्था द्द्वारा पुष्पों की प्रदर्शनी आयोजित की गई। आश्रम ने भी इसमें भाग लिया। चुनीभाई, अम्बुभाई, पुरुषोत्तम तीनों ने रात दिन काम करके फूलों की सुन्दर सजावट की। काम इतना अधिक था कि वे भोजन के लिए भोजन कक्ष में भी नहीं जा सके। भोजन-कक्ष जिनके अधिकार में था उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ''भोजन-कक्ष' में आकर भोजन करें। टिफिन नहीं भेज सकते हैं।'' पर वे नहीं जा सके। तीसरे दिन श्रीमाताजी प्रदर्शनी देखने आयीं और उन्हें पता चला कि इन तीनों ने दो दिन से कुछ खाया नहीं है तो उन्होंने दो साधकों को पैसा देकर बाहर से खाना मँगवा कर खिलाया। आश्रम में बाहर से खाना मँगाना मना होते हुए भी श्री माताजी ने अपने भूखे बालकों के लिये इस नियम का उल्लंघन कर दिया। तभी चुनीभाई ने निश्चय किया कि यदि मेरे हाथ में भोजन कक्ष का उत्तरदायित्व आएगा तो कोई भी व्यक्ति कभी भूखा नहीं रहेगा। उत्तरदायित्व मिलने पर सच में ऐसी व्यवस्था की कि देर से आनेवाले के लिये उसकी थाली ढ़ँकी हुई अलमारी में रखी जाती या टिफिन भेज दिया जाता था, यह व्यवस्था आज तक चल रही है।

आश्रम की यह पुष्पप्रदर्शनी भव्य थी। यह देखकर पांडिचेरी शहर के लोग भी आश्चर्यचकित हो गये। अभी तक वे सभी यही मानते थे कि आश्रम के लोग बम बनाना जानते हैं या पैसा उड़ाना जानते हैं। पर जब उन्होंने सुन्दर खिले हुए गुलाब और विविध पुष्पों

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का संयोजन देखा तब वे आश्रम की प्रगति से बहुत प्रभावित हुए। पुष्प प्रदर्शन में आश्रम को स्वर्णचन्द्रक (पदक) मिला। इसके पीछे चुनीभाई और उनके दोनो साथियों की रात-दिन की अथक मेहनत थी। इससे श्रीमाताजी भी बहुत प्रसन्न हुई। उन्हें द्युमान के अथक परिश्रम करने की शक्ति, कार्यनिष्ठा और समर्पण का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया।

प्रारम्भ में भोजन-कक्ष में उन्हें केवल भात परोसने का काम सौंपा गया, फिर सब्जी-दाल परोसने का काम भी दिया गया। आर्थिक व्यवहार सत्येन के पास था। वेंकटरामन और बाला इन दोनों साधकों को बाजार से वस्तुएँ खरीदने का उतरदायित्व दिया गया। चुनीभाई तो वितरण विभाग में ही थे। वे साधकों को प्रतिदिन केले देते, किसी को दाग वाले और खराब केले वे दे नहीं सकते थे और ऐसे केले अधिक मात्रा में होने पर उन्हें बाँटना मुश्किल होता था, इसलिये उन्होंने माताजी से सभी बात बताकर कहा कि, ''फलों को मैं खरीदकर बाजार से लाऊँगा।''

तब माताजी ने कहा, ''मैं तुम्हें पैसे नहीं दूंगी। ''

''नहीं माताजी, पैसे की मुझे आवश्यकता नहीं है। पैसे वे ही लोग चुकाएँ। मुझे तो केवल अच्छे केले और फलों को पसंद करना है, जिससे सभी को अच्छे प्रकार के फल मिले। श्री माताजी ने इसके लिये सहमती दे दी, तो चुनीभाई फल खरीदने के लिए वेंकटरामन और बाला के साथ जाने लगे। वे केले और अन्य फल पसंद करते। यह व्यवस्था लगभग एक वर्ष चली। अब साधकों को अच्छी गुणवत्ता वाले केले मिलने लगे। जब वेंकटरामन बाहर गाँव गये तो बाला पर उतरदायित्व अधिक आ गया, चुनीभाई इसमें मदद करने लगे। कुछ समय बाद बाला को कुछ समय के लिये बाहर गाँव जाना पड़ा तो श्री माताजी ने चुनीलाल को बुलाकर कहा ''तुम बाजार से खरीददारी का

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काम सम्भाल सकोगे?'' श्री माताजी चुनीभाई को कोई भी काम सौंपे तब चुनीभाई का हमेशा एक ही उत्तर होता था ''यस मधर'' - ''हाँ माताजी।'' वे आगे एक शब्द भी नहीं बोलते थे। कैसे होगा? कब होगा? ऐसा कोई प्रश्न उनके मन में उठता ही नहीं था। बस श्री माताजी ने काम सौंपा है तो हो जाएगा। ऐसी अटूट श्रद्धा से काम हाथ में लेते थे और सचमुच में उनके लिये मुश्किल और असम्भव लगते कार्य भी सहजता और सरलता से हो जाते थे।

अब बाजार से खरीददारी के क्षेत्र में चुनीभाई ने प्रवेश किया। सबसे पहले खरीदना था चावल। वे चावल के थोक व्यापारी के पास गये और कहा, ''मुझे एक ही प्रकार के चावल की तीन बोरी चाहिये।''

''मेरे पास एक ही प्रकार के चावल की एक साथ तीन बोरी नहीं है एक बोरी ही है।''

''इसका अर्थ यह है कि हमें अलग-अलग प्रकार के चावल हर बार खाना पड़ेगा। नहीं, यह नहीं चलेगा।'' चुनीभाई ने थोक व्यापारी से चावल खरीदना बन्द कर दिया और चावल उगानेवाले जमींदार के पास गये। इस जमींदार पुरुषोत्तम रेड्डी ने उनकी बहुत सहायता की। फिर किसी ने जमींदार के विषय में श्रीमाताजी को शिकायत की कि यह आदमी ठीक नहीं है तब माताजी ने चुनीभाई को बुलाकर पूछा, ''इस जमींदार के विषय में क्या शिकायतें आ रही हैं ?'' तब चुनीभाई ने माताजी को कहा, ''दूसरों के साथ उसका व्यवहार कैसा भी हो पर मेरे साथ तो उसका व्यवहार अच्छे सद्गृहस्थ जैसा है और वह अच्छी सेवा दे रहा है।'' श्री माताजी ने चुनीभाई की बात स्वीकार कर ली और जमींदार से थोकबन्द खरीदी चलती रही। उसने दस वर्ष तक आश्रम को नियमित उतम प्रकार के चावल पहुँचाए। आश्रम के अपने खेतों में भरपूर फसल होने से पुरुषोत्तम

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रेड्डी से चावल खरीदना बन्द हो गया। चुनीभाई का व्यवहार लोगों के साथ इतना अच्छा और सदभावपूर्ण होता था कि कितना ही उद्दंड मनुष्य भी उनके मधुर व्यवहार से उनके साथ अच्छा व्यवहार करने लगता था। इसका यह प्रत्यक्ष उदाहरण है, ऐसे अनेक उदाहरण उनके जीवन में देखने को मिलते हैं।

इन सब खरीददारी के लिये चुनीभाई को पैसे की आवश्यकता होती थी, वे पैसे उन्हें श्रीमाताजी के पास से सीधे नहीं मिलते, उन्हें सत्येन के पास से लेने पड़ते थे क्योंकि रसोई घर का समग्र अधिकार सत्येन के पास था। इसलिये उन्हें सारा हिसाब सत्येन को देना पड़ता था। इस विषय में श्रीमाताजी के साथ उनका सीधा सम्पर्क नहीं था। यह तो १९३४ में रसोईघर और भोजन-कक्ष का स्थान बदला गया तब श्री माताजीने चुनीभाई को बुलाकर कहा, ''अब रसोईघर का सम्पूर्ण उतरदायित्व तुम्हारे ऊपर है।'' तब से माताजी खरीदी के लिये सारी रकम उन्हें देने लगीं और फिर तो उन्होंने पुरुषोत्तम को भी कहा कि, ''प्रोस्पेरीटी की सभी क्राकरी चुनीलाल को सौंप दो।'' इस आश्रम में इन सात वर्षों में श्रीमाताजी ने चुनीभाई की कार्यशक्ति अच्छी तरह पहचान ली और भोजन कक्ष का समग्र उतरदायित्व उन्हें दे दिया।

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